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हमारे हिन्दू धर्म में दान का विशेष महत्व है। जिसके करने से हमारे जीवन पर गहरा असर पड़ता है।*बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम की अध्यक्ष श्रीमती वनिता कासनियां पंजाब* हर त्यौहार में गरीबों को दान देने की बात कही गई है। दान उसे कहते है जिसे देने के बाद उसे याद ना किया जाए। हिन्दू धर्म में गौ-दान से लेकर कन्यादान तक की परम्परा है। और इसमें यह भी कहा गया है कि हमारी कमाई का 10वां हिस्सा गरीबों को दान देने के लिए होता है ऐसा हमारे धर्म में कहा गया है। यदि देखा जाए तो इस्लाम में भी दान पुण्य करने का विशेष महत्व है, उसे जकात कहा जाता है। आय का एक निश्चित हिस्सा फकीरों के लिए दान करने की हिदायत दी गई है। बैसे तो हम अक्सर चीजों को दान करते है लेकिन श्राद्ध, संक्रांति, अमावस्या जैसे मौकों पर विशेषकर दान पुण्य किया जाता है। प्राय किन-किन चीजों का दान किया जाता है, वो यहां जान लेते हैं।1 बे सहारा को दान- हमारे हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा दान बे सहारा दान माना गया है। जो सभी दान में श्रेष्ठ है। बे सहारा को दान करने से घर में सुख शांति के साथ धन-संपत्ति बनी रहती है।2 अनाज का दान- गरीबों के हम अन्नदान भी करते है जिसमें गेहूं, चावल का दान सही माना गया है। यह दान संकल्प सहित करने पर मनोवांछित फल देता है।3 घी का दान- गाय का घी एक बर्तन में रखकर दान करने से घर की दरिद्रता दूर होती है। घर में शांति बनी रहती है।4 तिल का दान- मानव जीवन के हर कर्म में तिल का महत्व है। खास कर के श्राद्ध और किसी के मरने पर। काले तिलों का दान संकट, विपदाओं से रक्षा करता है।5 वस्त्रों का दान- हर किसी खास चीजों पर वस्त्रों का दान करने की हिदायत दी जाती है। इस दान में धोती और दुपट्टा सहित दो वस्त्रों के दान का महत्व है। इससे घर के दोष दूर हो जाते है।6 गुड़ का दान- गुड़ का दान कलह और दरिद्रता का नाश कर धन और सुख देने वाला माना गया है।

हमारे हिन्दू धर्म में दान का विशेष महत्व है। जिसके करने से हमारे जीवन पर गहरा असर पड़ता है। * बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम की अध्यक्ष श्रीमती वनिता कासनियां पंजाब * हर त्यौहार में गरीबों को दान देने की बात कही गई है। दान उसे कहते है जिसे देने के बाद उसे याद ना किया जाए। हिन्दू धर्म में गौ-दान से लेकर कन्यादान तक की परम्परा है। और इसमें यह भी कहा गया है कि हमारी कमाई का 10वां हिस्सा गरीबों को दान देने के लिए होता है ऐसा हमारे धर्म में कहा गया है। यदि देखा जाए तो इस्लाम में भी दान पुण्य करने का विशेष महत्व है, उसे जकात कहा जाता है। आय का एक निश्चित हिस्सा फकीरों के लिए दान करने की हिदायत दी गई है। बैसे तो हम अक्सर चीजों को दान करते है लेकिन श्राद्ध, संक्रांति, अमावस्या जैसे मौकों पर विशेषकर दान पुण्य किया जाता है। प्राय किन-किन चीजों का दान किया जाता है, वो यहां जान लेते हैं। 1 बे सहारा को दान- हमारे हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा दान बे सहारा दान माना गया है। जो सभी दान में श्रेष्ठ है। बे सहारा को दान करने से घर में सुख शांति के साथ धन-संपत्ति बनी रहती है। 2 अनाज का दान- गरीबों के हम अन्...

श्री दुर्गा चालीसा॥चौपाई॥नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो अम्बे दुःख हरनी॥निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूँ लोक फैली उजियारी॥शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबरूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥तुम संसार शक्ति लय कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिव शंकर प्यारी॥शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥रूप सरस्वती का तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि-मुनिन उबारा॥धरा रूप नरसिंह को अम्बा। प्रगट भईं फाड़कर खम्बा॥रक्षा कर प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दया सिन्धु दीजै मन आसा॥हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥मातंगी (अरु) धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥कर में खप्पर-खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजे॥सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥नगर कोटि में तुम्हीं विराजत। तिहुंलोक में डंका बाजत॥शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥परी गाढ़ (भीर) सन्तन पर जब-जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥प्रेम भक्ति से जो यश गावै। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥शक्ति रूप को मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥आशा तृष्णा निपट सतावे। रिपु मुरख मोहि अति डरपावे (मोह मदादिक सब विनशावै)॥शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दे करहु निहाला॥जब लगि जियउं दया फल पाऊं। तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं॥दुर्गा चालीसा जो (नित) गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥

श्री दुर्गा चालीसा ॥चौपाई॥ नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो अम्बे दुःख हरनी॥ निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूँ लोक फैली उजियारी॥ शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥ तुम संसार शक्ति लय कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥ अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥ प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिव शंकर प्यारी॥ शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥ रूप सरस्वती का तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि-मुनिन उबारा॥ धरा रूप नरसिंह को अम्बा। प्रगट भईं फाड़कर खम्बा॥ रक्षा कर प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥ लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥ क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दया सिन्धु दीजै मन आसा॥ हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥ मातंगी (अरु) धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥ श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥ केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥ कर में खप्पर-खड्ग विराजै। जाको देख का...

श्री लक्ष्मी चालीसा॥दोहा॥मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास।मनोकामना सिद्ध करि, पुरवहु (परुवहु) मेरी आस॥॥सोरठा॥यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं।सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदम्बिका॥॥चौपाई॥By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबसिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही। ज्ञान, बुद्धि, विद्या दो मोही॥तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥जय जय जय (जगत) जननि जगदम्बा। सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥तुम ही हो सब घट (घट) की वासी। विनती यही हमारी खासी॥जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥ज्ञान बुद्धि सब सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥जो जो जन्म प्रभु जहां लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥अपनाया तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वाञ्छित फल पाई॥तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मनलाई॥और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥ताको कोई कष्ट न होई। मन इच्छित पावै फल सोई॥त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। (त्रिविध) ताप भव बन्धन हारिणी॥जो यह पढ़ै और पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥ताकौ कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥पुत्रहीन अरु सम्पति हीना। अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्ध उपजै उर प्रेमा॥जय जय जय लक्ष्मी भवानी। सब में व्यापित हो गुण खानी॥तुम्हारो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु (कहुं) नाहिं॥मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दीजै दशा निहारी॥(केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्धि मोहि नहिं अधिकाई॥)बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥नहिं मोहिं ज्ञान बुद्धि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥रुप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥(केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्धि मोहि नहिं अधिकाई॥)॥दोहा॥त्राहि त्राहि दुःख हारिणी, हरो वेगि सब त्रास।जयति जयति जय लक्ष्मी, करो दुश्मन का नाश॥रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर।मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥

श्री लक्ष्मी चालीसा ॥दोहा॥ मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास। मनोकामना सिद्ध करि, पुरवहु (परुवहु) मेरी आस॥ ॥सोरठा॥ यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं। सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदम्बिका॥ ॥चौपाई॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही। ज्ञान, बुद्धि, विद्या दो मोही॥ तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥ जय जय जय (जगत) जननि जगदम्बा। सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥ तुम ही हो सब घट (घट) की वासी। विनती यही हमारी खासी॥ जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥ विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥ केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥ कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥ ज्ञान बुद्धि सब सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥ क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥ चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥ जो जो जन्म प्रभु जहां लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥ स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥ तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पु...

श्री बाबा बालक नाथ चालीसा॥दोहा॥गुरु चरणों में सीस धर करूँ प्रथम प्रणामबख्शो मुझको बाहुबल, सेव करूँ निष्कामरोम रोम में रम रहा, रूप तुम्हारा नाथदूर करो अवगुण मेरे, पकड़ो मेरा हाथ॥चौपाई॥बालक नाथ ज्ञान भंडारा।दिवस रात जपु नाम तुम्हारा॥तुम हो जपी तपी अविनाशी।तुम ही हो मथुरा के काशी॥तुमरा नाम जपे नर नारी।तुम हो सब भक्तन हितकारी॥तुम हो शिव शंकर के दासा।पर्वत लोक तुम्हारा वासा॥सर्वलोक तुमरा जस गावें।ऋषि मुनि सब नाम ध्यावें॥काँधे पर झोली विराजे।हाथ मे सुंदर चिमटा साजे॥सूरज के सम तेज तुम्हारा।मन मंदिर में करे उजारा॥बाल रूप धर गऊ चरावे।रत्‍नों की करी दूर बलावें॥अमर कथा सुनने को रसिया।महादेव तुमरे मन बसिया॥शाह तलाईयाँ आसान लाया।जिस्म विभूति झटा रमायें॥रत्‍नों का तू पुत्र कहाया।जिमिंदारो ने बुरा बनाया॥ऐसा चमत्कार तुमने दिखलाया।सबके मन का भ्रम मिटाया॥रिद्धि सिद्धि नवनिधि के दाता।मात लोक के भाग्य विधाता॥जो नर तुमरा नाम ध्यावें।जन्म जन्म के दू:ख बिसरावें॥अंतकाल जो सिमरण करहीं।सो नर मुक्ति भाव से मरहीं॥संकट कटे मीटे सब रोगा।बालक नाथ जपे जो लोगा॥लक्ष्मी पुत्र शिव भक्त कहाया।बालक नाथ जन्म प्रगटाया॥दुधाधारी सिर जटा सुहावै।अंग विभूति तन भस्म रमावे॥कानन कुंडल नैनन मस्ती।दिल मे बसे तेरी हस्ती॥अद्द्भुत तेज प्रताप तुम्हारे।घट-घट की तुम जानन हारे॥बाल रूप धरि भक्तन तारे।भक्तन के हैं पाप मिटाये॥गोरख नाथ सिद्ध जटाधारी।अजमाने आया तुम्हें पौणाहरी॥जब उस पेश गई न कोई।हार मान फिर मित्रता होई॥घट घट के अन्तर की जानत।भले बुरे की पीड़ पछानत॥सूक्ष्म रूप करे पवन अहारा।पौणाहरी हुआ नाम तुम्हारा॥दर पे जोत जगे दिन रैना।तुम रक्षक भय कोऊं है ना॥भक्त जन जब नाम पुकारा।तब ही उनका दुख निवारा॥सेवक उस्तति करत सदा ही।तुम जैसा दानी कोई नाही॥तीन लोक महिमा तब गाई।गौरख को जब कला दिखाई॥(अकथ अनादी भेद नहीं पाई)बालक नाथ अजय अविनाशी।करो कृपा घट घट के वासी॥तुमरा पाठ करे जो कोई।बन्धन छूट महा सुख होई॥त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारूँ।देहि दर्शन मोहे पार उतारो॥लै त्रिशूल शत्रुघन मारे।भक्त जनों के काज सवारें॥मात पिता बंधु और भाई।विपत काल पूछें नहीं कोई॥ढूधाधारी एक आस तुम्हारी।आन हरो अब संकट भारी॥पुत्रहीन इच्छा करे कोई।निश्चय नाथ प्रसाद ते होई॥बालक नाथ की गुफा न्यारी।रोट चढ़ावे जो नर नारी॥ऐतवार व्रत करे हमेशा।घर मे रहे न कोई कलेशा॥करूँ वंदना सीस निवाये।नाथ जी रहना सदा सहाये॥हम करें गुणगान तुम्हारा।भव सागर करो पार उतारा॥

श्री बाबा बालक नाथ चालीसा ॥दोहा॥ गुरु चरणों में सीस धर करूँ प्रथम प्रणाम बख्शो मुझको बाहुबल, सेव करूँ निष्काम रोम रोम में रम रहा, रूप तुम्हारा नाथ दूर करो अवगुण मेरे, पकड़ो मेरा हाथ ॥चौपाई॥ बालक नाथ ज्ञान भंडारा। दिवस रात जपु नाम तुम्हारा॥ तुम हो जपी तपी अविनाशी। तुम ही हो मथुरा के काशी॥ तुमरा नाम जपे नर नारी। तुम हो सब भक्तन हितकारी॥ तुम हो शिव शंकर के दासा। पर्वत लोक तुम्हारा वासा॥ सर्वलोक तुमरा जस गावें। ऋषि मुनि सब नाम ध्यावें॥ काँधे पर झोली विराजे। हाथ मे सुंदर चिमटा साजे॥ सूरज के सम तेज तुम्हारा। मन मंदिर में करे उजारा॥ बाल रूप धर गऊ चरावे। रत्‍नों की करी दूर बलावें॥ अमर कथा सुनने को रसिया। महादेव तुमरे मन बसिया॥ शाह तलाईयाँ आसान लाया। जिस्म विभूति झटा रमायें॥ रत्‍नों का तू पुत्र कहाया। जिमिंदारो ने बुरा बनाया॥ ऐसा चमत्कार तुमने दिखलाया। सबके मन का भ्रम मिटाया॥ रिद्धि सिद्धि नवनिधि के दाता। मात लोक के भाग्य विधाता॥ जो नर तुमरा नाम ध्यावें। जन्म जन्म के दू:ख बिसरावें॥ अंतकाल जो सिमरण करहीं। सो नर मुक्ति भाव से मरहीं॥ संकट कटे मीटे सब...

॥दोहा॥जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल।दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज।करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥॥चौपाई॥जयति जयति शनिदेव दयाला, करत सदा भक्तन प्रतिपाला।चारि भुजा, तनु श्याम विराजै, माथे रतन मुकुट छबि छाजै॥परम विशाल मनोहर भाला, टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला।कुण्डल श्रवण चमाचम चमके, हिय माल मुक्तन मणि दमके॥कर में गदा त्रिशूल कुठारा, पल बिच करैं अरिहिं संहारा।पिंगल, कृष्णो, छाया नन्दन, यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन॥सौरी, मन्द, शनी, दश नामा, भानु पुत्र पूजहिं सब कामा।जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं, रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं॥पर्वतहू तृण होई निहारत, तृणहू को पर्वत करि डारत।राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो, कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो॥बनहूँ में मृग कपट दिखाई, मातु जानकी गई चुराई (चतुराई)।लखनहिं शक्ति विकल करिडारा, मचिगा दल में हाहाकारा॥रावण की गतिमति बौराई, रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई।दियो कीट करि कंचन लंका, बजि बजरंग बीर की डंका॥नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा, चित्र मयूर निगलि गै हारा।हार नौलखा लाग्यो चोरी, हाथ पैर डरवायो तोरी॥भारी दशा निकृष्ट दिखायो, तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो।विनय राग दीपक महं कीन्हयों, तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों॥हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी, आपहुं भरे डोम घर पानी।तैसे नल पर दशा सिरानी, भूंजीमीन कूद गई पानी॥श्री शंकरहिं गहयो जब जाई, पारवती को सती कराई।तनिक विलोकत ही करि रीसा, नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा॥पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी, बची द्रौपदी होति उघारी।कौरव के भी गति मति मारयो, युद्ध महाभारत करि डारयो॥रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला, लेकर कूदि परयो पाताला।शेष देवलखि विनती लाई, रवि को मुख ते दियो छुड़ाई॥वाहन प्रभु के सात सुजाना, जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना।जम्बुक सिंह आदि नख धारी, सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं, हय ते सुख सम्पति उपजावैं।गर्दभ हानि करै बहु काजा, सिंह सिद्धकर राज समाजा॥जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै, मृग दे कष्ट प्राण संहारै।जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी, चोरी आदि होय डर भारी॥तैसहि चारि चरण यह नामा, स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा।लौह चरण पर जब प्रभु आवैं, धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं॥समता ताम्र रजत शुभकारी, स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी।जो यह शनि चरित्र नित गावै, कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥अद्भुत नाथ दिखावैं लीला, करैं शत्रु के नशि बलि ढीला।जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई, विधिवत शनि ग्रह शांति कराई॥पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत, दीप दान दै बहु सुख पावत।कहत राम सुन्दर प्रभु दासा, शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा॥॥दोहा॥पाठ शनिश्चर देव को, की हों 'भक्त' तैयार।करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार॥

श्री शनि चालीसा ॥दोहा॥ जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल। दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥ जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज। करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥ ॥चौपाई॥ जयति जयति शनिदेव दयाला, करत सदा भक्तन प्रतिपाला। चारि भुजा, तनु श्याम विराजै, माथे रतन मुकुट छबि छाजै॥ परम विशाल मनोहर भाला, टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला। कुण्डल श्रवण चमाचम चमके, हिय माल मुक्तन मणि दमके॥ कर में गदा त्रिशूल कुठारा, पल बिच करैं अरिहिं संहारा। पिंगल, कृष्णो, छाया नन्दन, यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन॥ सौरी, मन्द, शनी, दश नामा, भानु पुत्र पूजहिं सब कामा। जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं, रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं॥ पर्वतहू तृण होई निहारत, तृणहू को पर्वत करि डारत। राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो, कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो॥ बनहूँ में मृग कपट दिखाई, मातु जानकी गई चुराई (चतुराई)। लखनहिं शक्ति विकल करिडारा, मचिगा दल में हाहाकारा॥ रावण की गतिमति बौराई, रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई। दियो कीट करि कंचन लंका, बजि बजरंग बीर की डंका॥ नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा, चित्र मयूर निगलि गै ह...

श्री सांई चालीसा॥चौपाई॥पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं।कैसे शिरडी साईं आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥कौन है माता, पिता कौन है, यह न किसी ने भी जाना।कहां जन्म साईं ने धारा, प्रश्‍न पहेली (सा) रहा बना॥कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं।कोई कहता साईं बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं।कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साईं॥शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते॥कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान।बड़े दयालु दीनबन्धु (हैं), कितनों को दिया जीवन दान॥कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर।और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती गई वैसे ही शान।घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान॥दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम।दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम॥बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन।दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन॥कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान।एवं अस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान॥स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल।अन्तःकरण श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल॥भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा धनवान।माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥लगा मनाने साईंनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ है घर में मेरे।इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे॥कुलदीपक के ही अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥दे दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर कर के शीश।तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीश॥'अल्ला भला करेगा तेरा' पुत्र जन्म हो तेरे घर।कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार।पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी।तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था।जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था॥बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।साईं जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥पावन शिरडी नगर में जाकर, देखी मतवाली मूरति।धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की सूरति॥जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया।संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया॥मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।प्रतिबिम्‍बित हो उठे जगत में, हम साईं की आभा से॥बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥'काशीराम' बाबा का भक्त, इस शिरडी में रहता था।मैं साईं का साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था॥सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।झंकृति उसकी हृदय तंत्री थी, साईं की झंकारों में॥स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी आंचल में चाँद सितारे।नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी।विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी॥घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।मारो काटो लूट लो इसको, इसकी ही ध्वनि पड़ी सुनाई॥लूट पीटकर उसे वहाँ से, कुटिल गए चम्पत हो।आघातों से मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो॥बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में।जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥अनजाने ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साईं।जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को पड़ी सुनाई॥क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥उन्मादी से इधर-उधर तब, बाबा लगे भटकने।सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगे पटकने॥और धधकते अंगारों में, बाबा ने कर डाला।हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला॥समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त पड़ा संकट में।क्षुभित खड़े थे सभी वहाँ, पर पड़े हुए विस्मय में॥उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उनका अन्तःस्थल है॥इतने में ही विधि ने, अपनी विचित्रता दिखलाई।लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहाँ आई।सन्मुख अपने देख भक्त को, साईं की आंखें भर आई॥शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल।आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल॥आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी॥आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।उसके ही दर्शन की खातिर, थे उमड़े नगर-निवासी॥जब भी और जहां भी कोई, भक्त पड़े संकट में।उसकी रक्षा करने बाबा, जाते हैं पलभर में॥युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी॥भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं।जितने प्यारे हिन्दु-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई॥भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला॥घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना।मिले परस्पर हिन्दु-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना॥चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।और नीम कडु़वाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी॥सब को स्नेह दिया साईं ने, सबको अनतुल (संतुल) प्यार किया।जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया॥ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे॥साईं जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई।जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई॥तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो।अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो॥जब तू अपनी सुधियाँ तजकर, बाबा की सुधि किया करेगा।और रात-दिन बाबा-बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा॥तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी॥जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को।एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को॥धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साईं का ही गुण गाया॥गिरे संकटों के पर्वत चाहे, बिजली ही टूट पड़े।साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े॥इस बूढ़े की सुन करामात, तुम हो जाओगे हैरान।दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान॥एक बार शिरडी में साधु, ढोंगी था कोई आया।भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया॥जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वहाँ भाषण।कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन॥औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति॥अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से।तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से॥लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी।यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अतिशय भारी॥जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए।पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए॥औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा।मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा॥दुनिया दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो॥हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।प्रमुदित वह भी मन- ही-मन था, लख लोगों की नादानी॥खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक॥हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ॥मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को।कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को॥पलभर में ही ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को॥तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को।काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को॥पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर।सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है क्या अब खैर॥सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।अंश ईश का साईं बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में॥स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर॥वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल।उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विह्वल॥जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ हो जाता है।उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी हो आता है॥पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर में॥स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में।गले परस्पर मिलने लगते, जन-जन हैं आपस में॥ऐसे अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकर।समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर॥नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साईं ने।दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साईं ने॥सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साईं।पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साईं॥सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।सदा प्यार के भूखे साईं की, खातिर थे सभी समान॥स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे।बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे॥कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे।प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे॥रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके।बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे॥ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुख आपाद, विपदा के मारे।अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे॥सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे।दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे॥जाने क्या अद्भुत शक्ति, उस विभूति में होती थी।जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी॥धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साईं के पाए।धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए॥काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साईं मिल जाता।बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता॥गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर।मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर॥

श्री सांई चालीसा ॥चौपाई॥ पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं। कैसे शिरडी साईं आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥ कौन है माता, पिता कौन है, यह न किसी ने भी जाना। कहां जन्म साईं ने धारा, प्रश्‍न पहेली (सा) रहा बना॥ कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं। कोई कहता साईं बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥ कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं। कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साईं॥ शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते। कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते॥ कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान। बड़े दयालु दीनबन्धु (हैं), कितनों को दिया जीवन दान॥ कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात। किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥ आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर। आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥ कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर। और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥ जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती गई वैसे ही शान। घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान॥ दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम। दीन-दु...

श्री भरेव चालीसा॥दोहा॥विश्वनाथ को सुमिरि मन, धर गणेश का ध्यान।भैरव चालीसा रचु, कृपा करहु भगवान॥बटुकनाथ भैरव भजं, श्री काली के लाल।छीतरमल पर कृपा कर, काशी के कुतवाल॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब॥चौपाई॥जय जय श्री काली के लाला, रहो दास पर सदा दयाला।भैरव भीषण भीम कपाली, क्रोधवंत लोचन में लाली॥कर त्रिशूल है कठिन कराला, गल में प्रभु मुंडन की माला।कृष्ण रूप तन वर्ण विशाला, पीकर मद रहता मतवाला॥रूद्र बटुक भक्तन के संगी, प्रेतनाथ भूतेश भुजंगी।त्रैल तेश है नाम तुम्हारा, चक्र तुन्ड अमरेश पियारा॥शेखर चन्द्र कपाल विराजे, स्वान सवारी पै प्रभु गाजे।शिव नकुलेश चंड हो स्वामी, बैजनाथ प्रभु नमो नमामी॥अश्वनाथ क्रोधेश बखाने, भैरों काल जगत ने जाने।गायत्री कहे निमिष दिगंबर, जगन्नाथ उन्नत आडम्बर॥क्षेत्रपाल दसपाण कहाए, मंजुल उमानंद कहलाये।चक्रनाथ भक्तन हितकारी, कहे त्रयम्बक सब नर नारी॥संहारक सुनन्द तव नामा, करहु भक्त के पूरण कामा।नाथ पिशाचन के हो प्यारे, संकट मेटहू सकल हमारे॥कृत्यायू सुन्दर आनंदा, भक्तन जनन के काटहु फन्दा।कारन लम्ब आप भय भंजन, नमो नाथ जय जनजन (जनमन) रंजन॥हो तुम देव त्रिलोचन नाथा, भक्त चरण में नावत माथा।त्वं अशतांग रूद्र के लाला, महाकाल कालों के काला॥ताप विमोचन अरिदल नासा, भाल चन्द्रमा करहि प्रकाशा।श्वेत काल अरु लाल शरीरा, मस्तक मुकुट शीश पर चीरा॥काली के लाला बलधारी, कहां तक शोभा कहूँ तुम्हारी।शंकर के अवतार कृपाला, रहो चकाचक पी मद प्याला॥काशी के कुतवाल कहाओ, बटुकनाथ चेटक दिखलाओ।रवि के दिन जन भोग लगावें, धुप दीप नैवेद्य चढ़ावें॥दर्शन कर के भक्त सिहावें, दारूड़ा की धर पियावें।मठ में सुन्दर लटकत झावा, सिद्ध कार्य करो भैरों बाबा॥नाथ आपका यश नहीं थोड़ा, कर में शुभग सुशोभित कोड़ा।कटी घूंघरा सूरीले बाजत, कंचन के सिंहासन राजत॥नर नारी सब तुमको ध्यावहिं, मन वांछित इक्छा फल पावहिं।भोपा है आप के पुजारी, करें आरती सेवा भारी॥भैरव भात आप का गाऊं, बार बार पद शीश नवाऊं।आपही वारे छीजन धाये, ऐलादी ने रुदन मचाये॥बहन त्यागी भाई कहां जावे, तो बिन को मोहि भात पिन्हावे।रोये बटुकनाथ करुणा कर, गये हिवारे मैं तुम जाकर॥दुखित भई ऐलादी बाला, तब हर का सिंहासन हाला।समय ब्याह का जिस दिन आया, प्रभु ने तुमको तुरत पठाया॥विष्णु कही मत विलम्ब लगाओ, तीन दिवस को भैरव जाओ।दल पठान संग लेकर धाया, ऐलादी को भात पिन्हाया॥पूरण आस बहिन की किन्ही, सुर्ख चुंदरी सिर धरी दीन्ही।भात भरा लौटे गुणग्रामी, नमो नमामी अंतर्यामी॥॥दोहा॥जय जय जय भैरव बटुक, स्वामी संकट टार।कृपा दास पर कीजिये, शंकर के अवतार॥जो यह चालीसा पढ़े, प्रेम सहित सत बार। उस घर सर्वानन्द हो, वैभव बढे़ अपार॥

श्री भरेव चालीसा ॥दोहा॥ विश्वनाथ को सुमिरि मन, धर गणेश का ध्यान। भैरव चालीसा रचु, कृपा करहु भगवान॥ बटुकनाथ भैरव भजं, श्री काली के लाल। छीतरमल पर कृपा कर, काशी के कुतवाल॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब ॥चौपाई॥ जय जय श्री काली के लाला, रहो दास पर सदा दयाला। भैरव भीषण भीम कपाली, क्रोधवंत लोचन में लाली॥ कर त्रिशूल है कठिन कराला, गल में प्रभु मुंडन की माला। कृष्ण रूप तन वर्ण विशाला, पीकर मद रहता मतवाला॥ रूद्र बटुक भक्तन के संगी, प्रेतनाथ भूतेश भुजंगी। त्रैल तेश है नाम तुम्हारा, चक्र तुन्ड अमरेश पियारा॥ शेखर चन्द्र कपाल विराजे, स्वान सवारी पै प्रभु गाजे। शिव नकुलेश चंड हो स्वामी, बैजनाथ प्रभु नमो नमामी॥ अश्वनाथ क्रोधेश बखाने, भैरों काल जगत ने जाने। गायत्री कहे निमिष दिगंबर, जगन्नाथ उन्नत आडम्बर॥ क्षेत्रपाल दसपाण कहाए, मंजुल उमानंद कहलाये। चक्रनाथ भक्तन हितकारी, कहे त्रयम्बक सब नर नारी॥ संहारक सुनन्द तव नामा, करहु भक्त के पूरण कामा। नाथ पिशाचन के हो प्यारे, संकट मेटहू सकल हमारे॥ कृत्यायू सुन्दर आनंदा, भक्तन जनन के काटहु फन्दा। कारन लम्ब आप भय भंजन, नमो नाथ ज...