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श्री दुर्गा चालीसा॥चौपाई॥नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो अम्बे दुःख हरनी॥निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूँ लोक फैली उजियारी॥शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबरूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥तुम संसार शक्ति लय कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिव शंकर प्यारी॥शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥रूप सरस्वती का तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि-मुनिन उबारा॥धरा रूप नरसिंह को अम्बा। प्रगट भईं फाड़कर खम्बा॥रक्षा कर प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दया सिन्धु दीजै मन आसा॥हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥मातंगी (अरु) धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥कर में खप्पर-खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजे॥सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥नगर कोटि में तुम्हीं विराजत। तिहुंलोक में डंका बाजत॥शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥परी गाढ़ (भीर) सन्तन पर जब-जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥प्रेम भक्ति से जो यश गावै। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥शक्ति रूप को मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥आशा तृष्णा निपट सतावे। रिपु मुरख मोहि अति डरपावे (मोह मदादिक सब विनशावै)॥शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दे करहु निहाला॥जब लगि जियउं दया फल पाऊं। तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं॥दुर्गा चालीसा जो (नित) गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥

श्री दुर्गा चालीसा ॥चौपाई॥ नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो अम्बे दुःख हरनी॥ निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूँ लोक फैली उजियारी॥ शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥ तुम संसार शक्ति लय कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥ अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥ प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिव शंकर प्यारी॥ शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥ रूप सरस्वती का तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि-मुनिन उबारा॥ धरा रूप नरसिंह को अम्बा। प्रगट भईं फाड़कर खम्बा॥ रक्षा कर प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥ लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥ क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दया सिन्धु दीजै मन आसा॥ हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥ मातंगी (अरु) धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥ श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥ केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥ कर में खप्पर-खड्ग विराजै। जाको देख का...

श्री लक्ष्मी चालीसा॥दोहा॥मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास।मनोकामना सिद्ध करि, पुरवहु (परुवहु) मेरी आस॥॥सोरठा॥यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं।सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदम्बिका॥॥चौपाई॥By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबसिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही। ज्ञान, बुद्धि, विद्या दो मोही॥तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥जय जय जय (जगत) जननि जगदम्बा। सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥तुम ही हो सब घट (घट) की वासी। विनती यही हमारी खासी॥जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥ज्ञान बुद्धि सब सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥जो जो जन्म प्रभु जहां लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥अपनाया तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वाञ्छित फल पाई॥तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मनलाई॥और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥ताको कोई कष्ट न होई। मन इच्छित पावै फल सोई॥त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। (त्रिविध) ताप भव बन्धन हारिणी॥जो यह पढ़ै और पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥ताकौ कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥पुत्रहीन अरु सम्पति हीना। अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्ध उपजै उर प्रेमा॥जय जय जय लक्ष्मी भवानी। सब में व्यापित हो गुण खानी॥तुम्हारो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु (कहुं) नाहिं॥मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दीजै दशा निहारी॥(केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्धि मोहि नहिं अधिकाई॥)बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥नहिं मोहिं ज्ञान बुद्धि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥रुप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥(केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्धि मोहि नहिं अधिकाई॥)॥दोहा॥त्राहि त्राहि दुःख हारिणी, हरो वेगि सब त्रास।जयति जयति जय लक्ष्मी, करो दुश्मन का नाश॥रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर।मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥

श्री लक्ष्मी चालीसा ॥दोहा॥ मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास। मनोकामना सिद्ध करि, पुरवहु (परुवहु) मेरी आस॥ ॥सोरठा॥ यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं। सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदम्बिका॥ ॥चौपाई॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही। ज्ञान, बुद्धि, विद्या दो मोही॥ तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥ जय जय जय (जगत) जननि जगदम्बा। सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥ तुम ही हो सब घट (घट) की वासी। विनती यही हमारी खासी॥ जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥ विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥ केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥ कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥ ज्ञान बुद्धि सब सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥ क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥ चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥ जो जो जन्म प्रभु जहां लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥ स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥ तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पु...

श्री बाबा बालक नाथ चालीसा॥दोहा॥गुरु चरणों में सीस धर करूँ प्रथम प्रणामबख्शो मुझको बाहुबल, सेव करूँ निष्कामरोम रोम में रम रहा, रूप तुम्हारा नाथदूर करो अवगुण मेरे, पकड़ो मेरा हाथ॥चौपाई॥बालक नाथ ज्ञान भंडारा।दिवस रात जपु नाम तुम्हारा॥तुम हो जपी तपी अविनाशी।तुम ही हो मथुरा के काशी॥तुमरा नाम जपे नर नारी।तुम हो सब भक्तन हितकारी॥तुम हो शिव शंकर के दासा।पर्वत लोक तुम्हारा वासा॥सर्वलोक तुमरा जस गावें।ऋषि मुनि सब नाम ध्यावें॥काँधे पर झोली विराजे।हाथ मे सुंदर चिमटा साजे॥सूरज के सम तेज तुम्हारा।मन मंदिर में करे उजारा॥बाल रूप धर गऊ चरावे।रत्‍नों की करी दूर बलावें॥अमर कथा सुनने को रसिया।महादेव तुमरे मन बसिया॥शाह तलाईयाँ आसान लाया।जिस्म विभूति झटा रमायें॥रत्‍नों का तू पुत्र कहाया।जिमिंदारो ने बुरा बनाया॥ऐसा चमत्कार तुमने दिखलाया।सबके मन का भ्रम मिटाया॥रिद्धि सिद्धि नवनिधि के दाता।मात लोक के भाग्य विधाता॥जो नर तुमरा नाम ध्यावें।जन्म जन्म के दू:ख बिसरावें॥अंतकाल जो सिमरण करहीं।सो नर मुक्ति भाव से मरहीं॥संकट कटे मीटे सब रोगा।बालक नाथ जपे जो लोगा॥लक्ष्मी पुत्र शिव भक्त कहाया।बालक नाथ जन्म प्रगटाया॥दुधाधारी सिर जटा सुहावै।अंग विभूति तन भस्म रमावे॥कानन कुंडल नैनन मस्ती।दिल मे बसे तेरी हस्ती॥अद्द्भुत तेज प्रताप तुम्हारे।घट-घट की तुम जानन हारे॥बाल रूप धरि भक्तन तारे।भक्तन के हैं पाप मिटाये॥गोरख नाथ सिद्ध जटाधारी।अजमाने आया तुम्हें पौणाहरी॥जब उस पेश गई न कोई।हार मान फिर मित्रता होई॥घट घट के अन्तर की जानत।भले बुरे की पीड़ पछानत॥सूक्ष्म रूप करे पवन अहारा।पौणाहरी हुआ नाम तुम्हारा॥दर पे जोत जगे दिन रैना।तुम रक्षक भय कोऊं है ना॥भक्त जन जब नाम पुकारा।तब ही उनका दुख निवारा॥सेवक उस्तति करत सदा ही।तुम जैसा दानी कोई नाही॥तीन लोक महिमा तब गाई।गौरख को जब कला दिखाई॥(अकथ अनादी भेद नहीं पाई)बालक नाथ अजय अविनाशी।करो कृपा घट घट के वासी॥तुमरा पाठ करे जो कोई।बन्धन छूट महा सुख होई॥त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारूँ।देहि दर्शन मोहे पार उतारो॥लै त्रिशूल शत्रुघन मारे।भक्त जनों के काज सवारें॥मात पिता बंधु और भाई।विपत काल पूछें नहीं कोई॥ढूधाधारी एक आस तुम्हारी।आन हरो अब संकट भारी॥पुत्रहीन इच्छा करे कोई।निश्चय नाथ प्रसाद ते होई॥बालक नाथ की गुफा न्यारी।रोट चढ़ावे जो नर नारी॥ऐतवार व्रत करे हमेशा।घर मे रहे न कोई कलेशा॥करूँ वंदना सीस निवाये।नाथ जी रहना सदा सहाये॥हम करें गुणगान तुम्हारा।भव सागर करो पार उतारा॥

श्री बाबा बालक नाथ चालीसा ॥दोहा॥ गुरु चरणों में सीस धर करूँ प्रथम प्रणाम बख्शो मुझको बाहुबल, सेव करूँ निष्काम रोम रोम में रम रहा, रूप तुम्हारा नाथ दूर करो अवगुण मेरे, पकड़ो मेरा हाथ ॥चौपाई॥ बालक नाथ ज्ञान भंडारा। दिवस रात जपु नाम तुम्हारा॥ तुम हो जपी तपी अविनाशी। तुम ही हो मथुरा के काशी॥ तुमरा नाम जपे नर नारी। तुम हो सब भक्तन हितकारी॥ तुम हो शिव शंकर के दासा। पर्वत लोक तुम्हारा वासा॥ सर्वलोक तुमरा जस गावें। ऋषि मुनि सब नाम ध्यावें॥ काँधे पर झोली विराजे। हाथ मे सुंदर चिमटा साजे॥ सूरज के सम तेज तुम्हारा। मन मंदिर में करे उजारा॥ बाल रूप धर गऊ चरावे। रत्‍नों की करी दूर बलावें॥ अमर कथा सुनने को रसिया। महादेव तुमरे मन बसिया॥ शाह तलाईयाँ आसान लाया। जिस्म विभूति झटा रमायें॥ रत्‍नों का तू पुत्र कहाया। जिमिंदारो ने बुरा बनाया॥ ऐसा चमत्कार तुमने दिखलाया। सबके मन का भ्रम मिटाया॥ रिद्धि सिद्धि नवनिधि के दाता। मात लोक के भाग्य विधाता॥ जो नर तुमरा नाम ध्यावें। जन्म जन्म के दू:ख बिसरावें॥ अंतकाल जो सिमरण करहीं। सो नर मुक्ति भाव से मरहीं॥ संकट कटे मीटे सब...

॥दोहा॥जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल।दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज।करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥॥चौपाई॥जयति जयति शनिदेव दयाला, करत सदा भक्तन प्रतिपाला।चारि भुजा, तनु श्याम विराजै, माथे रतन मुकुट छबि छाजै॥परम विशाल मनोहर भाला, टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला।कुण्डल श्रवण चमाचम चमके, हिय माल मुक्तन मणि दमके॥कर में गदा त्रिशूल कुठारा, पल बिच करैं अरिहिं संहारा।पिंगल, कृष्णो, छाया नन्दन, यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन॥सौरी, मन्द, शनी, दश नामा, भानु पुत्र पूजहिं सब कामा।जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं, रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं॥पर्वतहू तृण होई निहारत, तृणहू को पर्वत करि डारत।राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो, कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो॥बनहूँ में मृग कपट दिखाई, मातु जानकी गई चुराई (चतुराई)।लखनहिं शक्ति विकल करिडारा, मचिगा दल में हाहाकारा॥रावण की गतिमति बौराई, रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई।दियो कीट करि कंचन लंका, बजि बजरंग बीर की डंका॥नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा, चित्र मयूर निगलि गै हारा।हार नौलखा लाग्यो चोरी, हाथ पैर डरवायो तोरी॥भारी दशा निकृष्ट दिखायो, तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो।विनय राग दीपक महं कीन्हयों, तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों॥हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी, आपहुं भरे डोम घर पानी।तैसे नल पर दशा सिरानी, भूंजीमीन कूद गई पानी॥श्री शंकरहिं गहयो जब जाई, पारवती को सती कराई।तनिक विलोकत ही करि रीसा, नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा॥पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी, बची द्रौपदी होति उघारी।कौरव के भी गति मति मारयो, युद्ध महाभारत करि डारयो॥रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला, लेकर कूदि परयो पाताला।शेष देवलखि विनती लाई, रवि को मुख ते दियो छुड़ाई॥वाहन प्रभु के सात सुजाना, जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना।जम्बुक सिंह आदि नख धारी, सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं, हय ते सुख सम्पति उपजावैं।गर्दभ हानि करै बहु काजा, सिंह सिद्धकर राज समाजा॥जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै, मृग दे कष्ट प्राण संहारै।जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी, चोरी आदि होय डर भारी॥तैसहि चारि चरण यह नामा, स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा।लौह चरण पर जब प्रभु आवैं, धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं॥समता ताम्र रजत शुभकारी, स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी।जो यह शनि चरित्र नित गावै, कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥अद्भुत नाथ दिखावैं लीला, करैं शत्रु के नशि बलि ढीला।जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई, विधिवत शनि ग्रह शांति कराई॥पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत, दीप दान दै बहु सुख पावत।कहत राम सुन्दर प्रभु दासा, शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा॥॥दोहा॥पाठ शनिश्चर देव को, की हों 'भक्त' तैयार।करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार॥

श्री शनि चालीसा ॥दोहा॥ जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल। दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥ जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज। करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥ ॥चौपाई॥ जयति जयति शनिदेव दयाला, करत सदा भक्तन प्रतिपाला। चारि भुजा, तनु श्याम विराजै, माथे रतन मुकुट छबि छाजै॥ परम विशाल मनोहर भाला, टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला। कुण्डल श्रवण चमाचम चमके, हिय माल मुक्तन मणि दमके॥ कर में गदा त्रिशूल कुठारा, पल बिच करैं अरिहिं संहारा। पिंगल, कृष्णो, छाया नन्दन, यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन॥ सौरी, मन्द, शनी, दश नामा, भानु पुत्र पूजहिं सब कामा। जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं, रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं॥ पर्वतहू तृण होई निहारत, तृणहू को पर्वत करि डारत। राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो, कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो॥ बनहूँ में मृग कपट दिखाई, मातु जानकी गई चुराई (चतुराई)। लखनहिं शक्ति विकल करिडारा, मचिगा दल में हाहाकारा॥ रावण की गतिमति बौराई, रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई। दियो कीट करि कंचन लंका, बजि बजरंग बीर की डंका॥ नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा, चित्र मयूर निगलि गै ह...

श्री सांई चालीसा॥चौपाई॥पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं।कैसे शिरडी साईं आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥कौन है माता, पिता कौन है, यह न किसी ने भी जाना।कहां जन्म साईं ने धारा, प्रश्‍न पहेली (सा) रहा बना॥कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं।कोई कहता साईं बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं।कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साईं॥शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते॥कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान।बड़े दयालु दीनबन्धु (हैं), कितनों को दिया जीवन दान॥कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर।और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती गई वैसे ही शान।घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान॥दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम।दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम॥बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन।दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन॥कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान।एवं अस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान॥स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल।अन्तःकरण श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल॥भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा धनवान।माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥लगा मनाने साईंनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ है घर में मेरे।इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे॥कुलदीपक के ही अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥दे दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर कर के शीश।तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीश॥'अल्ला भला करेगा तेरा' पुत्र जन्म हो तेरे घर।कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार।पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी।तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था।जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था॥बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।साईं जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥पावन शिरडी नगर में जाकर, देखी मतवाली मूरति।धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की सूरति॥जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया।संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया॥मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।प्रतिबिम्‍बित हो उठे जगत में, हम साईं की आभा से॥बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥'काशीराम' बाबा का भक्त, इस शिरडी में रहता था।मैं साईं का साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था॥सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।झंकृति उसकी हृदय तंत्री थी, साईं की झंकारों में॥स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी आंचल में चाँद सितारे।नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी।विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी॥घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।मारो काटो लूट लो इसको, इसकी ही ध्वनि पड़ी सुनाई॥लूट पीटकर उसे वहाँ से, कुटिल गए चम्पत हो।आघातों से मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो॥बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में।जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥अनजाने ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साईं।जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को पड़ी सुनाई॥क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥उन्मादी से इधर-उधर तब, बाबा लगे भटकने।सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगे पटकने॥और धधकते अंगारों में, बाबा ने कर डाला।हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला॥समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त पड़ा संकट में।क्षुभित खड़े थे सभी वहाँ, पर पड़े हुए विस्मय में॥उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उनका अन्तःस्थल है॥इतने में ही विधि ने, अपनी विचित्रता दिखलाई।लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहाँ आई।सन्मुख अपने देख भक्त को, साईं की आंखें भर आई॥शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल।आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल॥आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी॥आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।उसके ही दर्शन की खातिर, थे उमड़े नगर-निवासी॥जब भी और जहां भी कोई, भक्त पड़े संकट में।उसकी रक्षा करने बाबा, जाते हैं पलभर में॥युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी॥भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं।जितने प्यारे हिन्दु-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई॥भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला॥घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना।मिले परस्पर हिन्दु-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना॥चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।और नीम कडु़वाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी॥सब को स्नेह दिया साईं ने, सबको अनतुल (संतुल) प्यार किया।जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया॥ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे॥साईं जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई।जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई॥तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो।अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो॥जब तू अपनी सुधियाँ तजकर, बाबा की सुधि किया करेगा।और रात-दिन बाबा-बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा॥तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी॥जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को।एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को॥धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साईं का ही गुण गाया॥गिरे संकटों के पर्वत चाहे, बिजली ही टूट पड़े।साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े॥इस बूढ़े की सुन करामात, तुम हो जाओगे हैरान।दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान॥एक बार शिरडी में साधु, ढोंगी था कोई आया।भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया॥जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वहाँ भाषण।कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन॥औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति॥अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से।तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से॥लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी।यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अतिशय भारी॥जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए।पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए॥औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा।मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा॥दुनिया दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो॥हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।प्रमुदित वह भी मन- ही-मन था, लख लोगों की नादानी॥खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक॥हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ॥मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को।कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को॥पलभर में ही ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को॥तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को।काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को॥पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर।सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है क्या अब खैर॥सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।अंश ईश का साईं बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में॥स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर॥वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल।उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विह्वल॥जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ हो जाता है।उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी हो आता है॥पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर में॥स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में।गले परस्पर मिलने लगते, जन-जन हैं आपस में॥ऐसे अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकर।समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर॥नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साईं ने।दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साईं ने॥सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साईं।पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साईं॥सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।सदा प्यार के भूखे साईं की, खातिर थे सभी समान॥स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे।बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे॥कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे।प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे॥रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके।बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे॥ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुख आपाद, विपदा के मारे।अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे॥सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे।दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे॥जाने क्या अद्भुत शक्ति, उस विभूति में होती थी।जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी॥धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साईं के पाए।धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए॥काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साईं मिल जाता।बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता॥गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर।मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर॥

श्री सांई चालीसा ॥चौपाई॥ पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं। कैसे शिरडी साईं आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥ कौन है माता, पिता कौन है, यह न किसी ने भी जाना। कहां जन्म साईं ने धारा, प्रश्‍न पहेली (सा) रहा बना॥ कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं। कोई कहता साईं बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥ कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं। कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साईं॥ शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते। कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते॥ कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान। बड़े दयालु दीनबन्धु (हैं), कितनों को दिया जीवन दान॥ कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात। किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥ आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर। आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥ कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर। और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥ जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती गई वैसे ही शान। घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान॥ दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम। दीन-दु...

श्री भरेव चालीसा॥दोहा॥विश्वनाथ को सुमिरि मन, धर गणेश का ध्यान।भैरव चालीसा रचु, कृपा करहु भगवान॥बटुकनाथ भैरव भजं, श्री काली के लाल।छीतरमल पर कृपा कर, काशी के कुतवाल॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब॥चौपाई॥जय जय श्री काली के लाला, रहो दास पर सदा दयाला।भैरव भीषण भीम कपाली, क्रोधवंत लोचन में लाली॥कर त्रिशूल है कठिन कराला, गल में प्रभु मुंडन की माला।कृष्ण रूप तन वर्ण विशाला, पीकर मद रहता मतवाला॥रूद्र बटुक भक्तन के संगी, प्रेतनाथ भूतेश भुजंगी।त्रैल तेश है नाम तुम्हारा, चक्र तुन्ड अमरेश पियारा॥शेखर चन्द्र कपाल विराजे, स्वान सवारी पै प्रभु गाजे।शिव नकुलेश चंड हो स्वामी, बैजनाथ प्रभु नमो नमामी॥अश्वनाथ क्रोधेश बखाने, भैरों काल जगत ने जाने।गायत्री कहे निमिष दिगंबर, जगन्नाथ उन्नत आडम्बर॥क्षेत्रपाल दसपाण कहाए, मंजुल उमानंद कहलाये।चक्रनाथ भक्तन हितकारी, कहे त्रयम्बक सब नर नारी॥संहारक सुनन्द तव नामा, करहु भक्त के पूरण कामा।नाथ पिशाचन के हो प्यारे, संकट मेटहू सकल हमारे॥कृत्यायू सुन्दर आनंदा, भक्तन जनन के काटहु फन्दा।कारन लम्ब आप भय भंजन, नमो नाथ जय जनजन (जनमन) रंजन॥हो तुम देव त्रिलोचन नाथा, भक्त चरण में नावत माथा।त्वं अशतांग रूद्र के लाला, महाकाल कालों के काला॥ताप विमोचन अरिदल नासा, भाल चन्द्रमा करहि प्रकाशा।श्वेत काल अरु लाल शरीरा, मस्तक मुकुट शीश पर चीरा॥काली के लाला बलधारी, कहां तक शोभा कहूँ तुम्हारी।शंकर के अवतार कृपाला, रहो चकाचक पी मद प्याला॥काशी के कुतवाल कहाओ, बटुकनाथ चेटक दिखलाओ।रवि के दिन जन भोग लगावें, धुप दीप नैवेद्य चढ़ावें॥दर्शन कर के भक्त सिहावें, दारूड़ा की धर पियावें।मठ में सुन्दर लटकत झावा, सिद्ध कार्य करो भैरों बाबा॥नाथ आपका यश नहीं थोड़ा, कर में शुभग सुशोभित कोड़ा।कटी घूंघरा सूरीले बाजत, कंचन के सिंहासन राजत॥नर नारी सब तुमको ध्यावहिं, मन वांछित इक्छा फल पावहिं।भोपा है आप के पुजारी, करें आरती सेवा भारी॥भैरव भात आप का गाऊं, बार बार पद शीश नवाऊं।आपही वारे छीजन धाये, ऐलादी ने रुदन मचाये॥बहन त्यागी भाई कहां जावे, तो बिन को मोहि भात पिन्हावे।रोये बटुकनाथ करुणा कर, गये हिवारे मैं तुम जाकर॥दुखित भई ऐलादी बाला, तब हर का सिंहासन हाला।समय ब्याह का जिस दिन आया, प्रभु ने तुमको तुरत पठाया॥विष्णु कही मत विलम्ब लगाओ, तीन दिवस को भैरव जाओ।दल पठान संग लेकर धाया, ऐलादी को भात पिन्हाया॥पूरण आस बहिन की किन्ही, सुर्ख चुंदरी सिर धरी दीन्ही।भात भरा लौटे गुणग्रामी, नमो नमामी अंतर्यामी॥॥दोहा॥जय जय जय भैरव बटुक, स्वामी संकट टार।कृपा दास पर कीजिये, शंकर के अवतार॥जो यह चालीसा पढ़े, प्रेम सहित सत बार। उस घर सर्वानन्द हो, वैभव बढे़ अपार॥

श्री भरेव चालीसा ॥दोहा॥ विश्वनाथ को सुमिरि मन, धर गणेश का ध्यान। भैरव चालीसा रचु, कृपा करहु भगवान॥ बटुकनाथ भैरव भजं, श्री काली के लाल। छीतरमल पर कृपा कर, काशी के कुतवाल॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब ॥चौपाई॥ जय जय श्री काली के लाला, रहो दास पर सदा दयाला। भैरव भीषण भीम कपाली, क्रोधवंत लोचन में लाली॥ कर त्रिशूल है कठिन कराला, गल में प्रभु मुंडन की माला। कृष्ण रूप तन वर्ण विशाला, पीकर मद रहता मतवाला॥ रूद्र बटुक भक्तन के संगी, प्रेतनाथ भूतेश भुजंगी। त्रैल तेश है नाम तुम्हारा, चक्र तुन्ड अमरेश पियारा॥ शेखर चन्द्र कपाल विराजे, स्वान सवारी पै प्रभु गाजे। शिव नकुलेश चंड हो स्वामी, बैजनाथ प्रभु नमो नमामी॥ अश्वनाथ क्रोधेश बखाने, भैरों काल जगत ने जाने। गायत्री कहे निमिष दिगंबर, जगन्नाथ उन्नत आडम्बर॥ क्षेत्रपाल दसपाण कहाए, मंजुल उमानंद कहलाये। चक्रनाथ भक्तन हितकारी, कहे त्रयम्बक सब नर नारी॥ संहारक सुनन्द तव नामा, करहु भक्त के पूरण कामा। नाथ पिशाचन के हो प्यारे, संकट मेटहू सकल हमारे॥ कृत्यायू सुन्दर आनंदा, भक्तन जनन के काटहु फन्दा। कारन लम्ब आप भय भंजन, नमो नाथ ज...

श्री श्याम चालीसा॥दोहा॥श्री गुरु चरण ध्यान धर, सुमिरि सच्चिदानन्द।श्याम चालीसा भणत हूँ, रच चैपाई छन्द॥॥चौपाई॥श्याम श्याम भजि बारम्बारा, सहज ही हो भवसागर पारा।इन सम देव न दूजा कोई, दीन दयालु न दाता होई॥भीमसुपुत्र अहिलवती जाया, कहीं भीम का पौत्र कहाया।यह सब कथा सही कल्पान्तर, तनिक न मानों इसमें अन्तर॥बर्बरीक विष्णु अवतारा, भक्तन हेतु मनुज तनु धारा।वसुदेव देवकी प्यारे, यशुमति मैया नन्द दुलारे॥मधुसूदन गोपाल मुरारी, बृजकिशोर गोवर्धन धारी।सियाराम श्री हरि गोविन्दा, दीनपाल श्री बाल मुकुन्दा॥दामोदर रणछोड़ बिहारी, नाथ द्वारिकाधीश खरारी।नरहरि रूप प्रहलाद प्यारा, खम्भ फारि हिरनाकुश मारा॥राधा वल्लभ रुक्मिणी कंता, गोपी वल्लभ कंस हनंता।मनमोहन चितचोर कहाये, माखन चोरि चोरि कर खाये॥मुरलीधर यदुपति घनश्याम, कृष्ण पतितपावन अभिरामा।मायापति लक्ष्मीपति ईसा, पुरुषोत्तम केशव जगदीशा॥विश्वपति त्रिभुवन उजियारा, दीनबन्धु भक्तन रखवारा।प्रभु का भेद कोई न पाया, शेष महेश थके मुनिराया (मुनियारा)॥नारद शारद ऋषि योगिन्दर, श्याम श्याम सब रटत निरन्तर।कवि कोविद करि सके न गिनन्ता, नाम अपार अथाह अनन्ता॥हर सृष्टि हर युग में भाई, ले अवतार भक्त सुखदाई।हृदय माँहि करि देखु विचारा, श्याम भजे तो हो निस्तारा॥कीर पढ़ावत गणिका तारी, भीलनी की भक्ति बलिहारी।सती अहिल्या गौतम नारी, भई श्राप वश शिला दुखारी॥श्याम चरण रज नित लाई, पहुँची पतिलोक में जाई।अजामिल अरु सदन कसाई, नाम प्रताप परम गति पाई॥जाके श्याम (का) नाम अधारा, सुख लहहि दुख दूर हो सारा।श्याम सुलोचन है अति सुन्दर, मोर मुकुट सिर तन पीताम्बर॥गल वैजयन्तिमाल सुहाई, छवि अनूप भक्तन मन भाई।श्याम श्याम सुमिरहुं दिनराती, शाम दुपहरि अरु परभाती॥श्याम सारथी जिसके रथ के, रोड़े दूर होय उस पथ के।श्याम भक्त न कहीं पर हारा, भीर परि तब श्याम पुकारा॥रसना श्याम नाम रस पी ले, जी ले श्याम नाम के हाले।संसारी सुख भोग मिलेगा, अन्त श्याम सुख योग मिलेगा॥श्याम प्रभु हैं तन के काले, मन के गोरे भोले भाले।श्याम संत भक्तन हितकारी, रोग दोष अघ नाशै भारी॥प्रेम सहित जे नाम पुकारा, भक्त लगत श्याम को प्यारा।खाटू में है मथुरा वासी, पार ब्रह्म पूरण अविनासी॥सुधा तान भरि मुरली बजाई, चहुं दिशि नाना जहाँ सुनि पाई।वृद्ध बाल जेते नारी नर, मुग्ध भये सुनि वंशी के स्वर॥दौड़ दौड़ पहुँचे सब जाई, खाटू में जहाँ श्याम कन्हाई।जिसने श्याम स्वरूप निहारा, भव भय से पाया छुटकारा॥॥दोहा॥श्याम सलोने साँवरे, बर्बरीक तनु धार। इच्छा पूर्ण भक्त की, करो न लाओ बार॥

श्री श्याम चालीसा ॥दोहा॥ श्री गुरु चरण ध्यान धर, सुमिरि सच्चिदानन्द। श्याम चालीसा भणत हूँ, रच चैपाई छन्द॥ ॥चौपाई॥ श्याम श्याम भजि बारम्बारा, सहज ही हो भवसागर पारा। इन सम देव न दूजा कोई, दीन दयालु न दाता होई॥ भीमसुपुत्र अहिलवती जाया, कहीं भीम का पौत्र कहाया। यह सब कथा सही कल्पान्तर, तनिक न मानों इसमें अन्तर॥ बर्बरीक विष्णु अवतारा, भक्तन हेतु मनुज तनु धारा। वसुदेव देवकी प्यारे, यशुमति मैया नन्द दुलारे॥ मधुसूदन गोपाल मुरारी, बृजकिशोर गोवर्धन धारी। सियाराम श्री हरि गोविन्दा, दीनपाल श्री बाल मुकुन्दा॥ दामोदर रणछोड़ बिहारी, नाथ द्वारिकाधीश खरारी। नरहरि रूप प्रहलाद प्यारा, खम्भ फारि हिरनाकुश मारा॥ राधा वल्लभ रुक्मिणी कंता, गोपी वल्लभ कंस हनंता। मनमोहन चितचोर कहाये, माखन चोरि चोरि कर खाये॥ मुरलीधर यदुपति घनश्याम, कृष्ण पतितपावन अभिरामा। मायापति लक्ष्मीपति ईसा, पुरुषोत्तम केशव जगदीशा॥ विश्वपति त्रिभुवन उजियारा, दीनबन्धु भक्तन रखवारा। प्रभु का भेद कोई न पाया, शेष महेश थके मुनिराया (मुनियारा)॥ नारद शारद ऋषि योगिन्दर, श्याम श्याम सब रटत निरन्तर। कवि कोविद करि सके न...

श्री कृष्ण चालीसा॥दोहा॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम।अरुण अधर जनु बिम्ब फल, नयन कमल अभिराम॥पूर्ण इन्द्र, अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज।जय मनमोहन मदन छवि, कृष्ण चन्द्र महाराज॥॥चौपाई॥जय यदुनन्दन जय जगवन्दन, जय वसुदेव देवकी नन्दन।जय यशुदा सुत नन्द दुलारे, जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥जय नट-नागर नाग नथइया, कृष्ण कन्हैया धेनु चरइया।पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो, आओ दीनन कष्ट निवारो॥बंशी मधुर अधर धरि तेरी, होवे पूर्ण विनय यह मेरी।आओ हरि पुनि माखन चाखो, आज लाज भारत की राखो॥गोल कपोल, चिबुक अरुणारे, मृदु मुस्कान मोहिनी डारे।रंजित राजिव नयन विशाला, मोर मुकुट बैजन्ती माला॥कुण्डल श्रवण पीतपट आछे, कटि किंकणी काछन काछे।नील जलज सुन्दर तनु सोहे, छवि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥मस्तक तिलक, अलक घुंघंराले, आओ कृष्ण बांसुरी वाले।करि पय पान, पूतनहिं तारयो, अका बका कागासुर मारयो॥मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला, भये शीतल, लखितहिं नन्दलाला।सुरपति जब ब्रज चढ़यो रिसाई, मूसर धार वारि वर्षाई॥लगत-लगत ब्रज चहन बहायो, गोवर्धन नखधारि बचायो।लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई, मुख महं चौदह भुवन दिखाई॥दुष्ट कंस अति उधम मचायो, कोटि कमल जब फूल मंगायो।नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें, चरणचिन्ह दै निर्भय कीन्हें॥करि गोपिन संग रास विलासा, सबकी पूरण करी अभिलाषा।केतिक महा असुर संहारयो, कंसहि केस पकड़ि दै मारयो॥मात-पिता की बन्दि छुड़ाई, उग्रसेन कहं राज दिलाई।महि से मृतक छहों सुत लायो, मातु देवकी शोक मिटायो॥भौमासुर मुर दैत्य संहारी, लाये षट दश सहस कुमारी।दें भीमहिं तृण चीर सहारा, जरासिंधु राक्षस कहं मारा॥असुर बकासुर आदिक मारयो, भक्तन के तब कष्ट निवारियो।दीन सुदामा के दुःख टारयो, तंदुल तीन मूठि मुख डारयो॥प्रेम के साग विदुर घर मांगे, दुर्योधन के मेवा त्यागे।लखी प्रेम की महिमा भारी, ऐसे श्याम दीन हितकारी॥भारत के पारथ रथ हांके, लिए चक्र कर नहिं बल थाके।निज गीता के ज्ञान सुनाये, भक्तन ह्रदय सुधा वर्षाये॥मीरा थी ऐसी मतवाली, विष पी गई बजाकर ताली।राणा भेजा सांप पिटारी, शालिग्राम बने बनवारी॥निज माया तुम विधिहिं दिखायो, उर ते संशय सकल मिटायो।तब शत निन्दा करी तत्काला, जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥जबहिं द्रौपदी टेर लगाई, दीनानाथ लाज अब जाई।तुरतहिं वसन बने नन्दलाला, बढ़े चीर भये अरि मुँह काला॥अस अनाथ के नाथ कन्हैया, डूबत भंवर बचावत नइया।सुन्दरदास आस उर धारी, दयादृष्टि कीजै बनवारी॥नाथ सकल मम कुमति निवारो, क्षमहु बेगि अपराध हमारो।खोलो पट अब दर्शन दीजै, बोलो कृष्ण कन्हैया की जै॥॥दोहा॥यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि।अष्ट सिद्धि नवनिधि फल, लहै पदारथ चारि॥

श्री कृष्ण चालीसा ॥दोहा॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम। अरुण अधर जनु बिम्ब फल, नयन कमल अभिराम॥ पूर्ण इन्द्र, अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज। जय मनमोहन मदन छवि, कृष्ण चन्द्र महाराज॥ ॥चौपाई॥ जय यदुनन्दन जय जगवन्दन, जय वसुदेव देवकी नन्दन। जय यशुदा सुत नन्द दुलारे, जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥ जय नट-नागर नाग नथइया, कृष्ण कन्हैया धेनु चरइया। पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो, आओ दीनन कष्ट निवारो॥ बंशी मधुर अधर धरि तेरी, होवे पूर्ण विनय यह मेरी। आओ हरि पुनि माखन चाखो, आज लाज भारत की राखो॥ गोल कपोल, चिबुक अरुणारे, मृदु मुस्कान मोहिनी डारे। रंजित राजिव नयन विशाला, मोर मुकुट बैजन्ती माला॥ कुण्डल श्रवण पीतपट आछे, कटि किंकणी काछन काछे। नील जलज सुन्दर तनु सोहे, छवि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥ मस्तक तिलक, अलक घुंघंराले, आओ कृष्ण बांसुरी वाले। करि पय पान, पूतनहिं तारयो, अका बका कागासुर मारयो॥ मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला, भये शीतल, लखितहिं नन्दलाला। सुरपति जब ब्रज चढ़यो रिसाई, मूसर धार वारि वर्षाई॥ लगत-लगत ब्रज चहन बहायो, गोवर्धन नखधारि बचायो...

श्री हनुमाजी चालीसा॥दोहा॥ बाल वनिता महिला आश्रम श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि।बरनउं रघुवर विमल जसु, जो दायकु फल चारि॥बुद्धिहीन तनु जानि के, सुमिरौं पवन कुमार।बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार॥।।चौपाई।।जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिंहु लोक उजागर।रामदूत अतुलित बलधामा, अंजनि पुत्र पवनसुत नामा॥महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा॥हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै, कान्धे मूंज जनेऊ साजै।शंकर सुवन केसरी नन्दन, तेज प्रताप महा जग वन्दन॥विद्यावान गुनी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर।प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा, विकट रूप धरि लंक जरावा।भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥लाये संजीवन लखन जियाये, श्री रघुबीर हरषि उर लाये।रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत (हि) सम भाई॥सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं।सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद सारद सहित अहीसा॥जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कवि कोबिद कहि सके कहाँ ते।तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा, राम मिलाय राज पद दीन्हा॥तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना, लंकेश्वर भये सब जग जाना।जुग सहस्र योजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे।सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना॥आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हांक तें कांपै।भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै॥नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा।संकट ते हनुमान छुड़ावै, मन क्रम वचन ध्यान जो लावै॥सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा।और मनोरथ जो कोई लावै, सोइ अमित जीवन फल पावै॥चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा।साधु सन्त के तुम रखवारे, असुर निकन्दन राम दुलारे॥अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता।राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै।अन्तकाल रघुबर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥और देवता चित्त न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई।संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥जय जय जय हनुमान गोसांई, कृपा करहु गुरुदेव की नाई।जो शत बार पाठ कर सोई, छूटहिं बंदि महा सुख होई॥जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा।तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ ह्रदय महँ डेरा॥॥दोहा॥पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप।राम लखन सीता सहित, ह्रदय बसहु सुर भूप॥

श्री हनुमाजी चालीसा ॥दोहा॥ बाल वनिता महिला आश्रम श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि। बरनउं रघुवर विमल जसु, जो दायकु फल चारि॥ बुद्धिहीन तनु जानि के, सुमिरौं पवन कुमार। बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार॥ ।।चौपाई।। जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिंहु लोक उजागर। रामदूत अतुलित बलधामा, अंजनि पुत्र पवनसुत नामा॥ महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी। कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा॥ हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै, कान्धे मूंज जनेऊ साजै। शंकर सुवन केसरी नन्दन, तेज प्रताप महा जग वन्दन॥ विद्यावान गुनी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर। प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥ सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा, विकट रूप धरि लंक जरावा। भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥ लाये संजीवन लखन जियाये, श्री रघुबीर हरषि उर लाये। रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत (हि) सम भाई॥ सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं। सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद सारद सहित अहीसा॥ जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कवि कोबि...

श्री राम जी चालीसा By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब ॥चौपाई॥श्री रघुवीर भक्त हितकारी, सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।निशिदिन ध्यान धरै जो कोई, ता सम भक्त और नहिं होई॥ध्यान धरे शिवजी मन माहीं, ब्रह्मा इन्द्र पार नहिं पाहीं।जय, जय, जय रघुनाथ कृपाला, सदा करो संतन प्रतिपाला॥दूत तुम्हार वीर हनुमाना, जासु प्रभाव तिहूं पुर जाना।तव भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला, रावण मारि सुरन प्रतिपाला॥तुम अनाथ के नाथ गुंसाई, दीनन के हो सदा सहाई।ब्रह्मादिक तव पार न पावैं, सदा ईश तुम्हरो यश गावैं॥चारिउ वेद भरत हैं साखी, तुम भक्तन की लज्जा राखीं।गुण गावत शारद मन माहीं, सुरपति ताको पार न पाहीं॥नाम तुम्हार लेत जो कोई, ता सम धन्य और नहिं होई।राम नाम है अपरम्पारा, चारिहु वेदन जाहि पुकारा॥गणपति नाम तुम्हारो लीन्हो, तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हो।शेष रटत नित नाम तुम्हारा, महि को भार शीश पर धारा॥फूल समान रहत सो भारा, पाव न कोऊ तुम्हारो पारा।भरत नाम तुम्हरो उर धारो, तासों कबहुं न रण में हारो॥नाम शत्रुहन हृदय प्रकाशा, सुमिरत होत शत्रु कर नाशा।लखन तुम्हारे आज्ञाकारी, सदा करत सन्तन रखवारी॥ताते रण जीते नहिं कोई, युद्ध जुरे यमहूं किन होई।महालक्ष्मी धर अवतारा, सब विधि करत पाप को छारा॥सीता नाम पुनीता गायो, भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो।घट सों प्रकट भई सो आई, जाको देखत चन्द्र लजाई॥सो तुमरे नित पांव पलोटत, नवो निद्धि चरणन में लोटत।सिद्धि अठारह मंगलकारी, सो तुम पर जावै बलिहारी॥औरहु जो अनेक प्रभुताई, सो सीतापति तुमहिं बनाई।इच्छा ते कोटिन संसारा, रचत न लागत पल की बारा॥जो तुम्हरे चरणन चित लावै, ताकी मुक्ति अवसि हो जावै।जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा, निर्गुण ब्रह्म अखण्ड अनूपा॥सत्य सत्य सत्य व्रत स्वामी, सत्य सनातन अन्तर्यामी।सत्य भजन तुम्हरो जो गावै, सो निश्चय चारों फल पावै॥सत्य शपथ गौरीपति कीन्हीं, तुमने भक्तिहिं सब सिद्धि दीन्हीं।सुनहु राम तुम तात हमारे, तुमहिं भरत कुल पूज्य प्रचारे॥तुमहिं देव कुल देव हमारे, तुम गुरु देव प्राण के प्यारे।जो कुछ हो सो तुम ही राजा, जय जय जय प्रभु राखो लाजा॥राम आत्मा पोषण हारे, जय जय जय दशरथ के दुलारे।ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरूपा, नमो नमो जय जगपति भूपा॥धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा, नाम तुम्हार हरत संतापा।सत्य शुद्ध देवन मुख गाया, बजी दुन्दुभी शंख बजाया॥सत्य सत्य तुम सत्य सनातन, तुम ही हो हमरे तन मन धन।याको पाठ करे जो कोई, ज्ञान प्रकट ताके उर होई॥आवागमन मिटै तिहि केरा, सत्य वचन माने शिर मेरा।और आस मन में जो होई, मनवांछित फल पावे सोई॥तीनहुं काल ध्यान जो ल्यावै, तुलसी दल अरु फूल चढ़ावै।साग पत्र सो भोग लगावै, सो नर सकल सिद्धता पावै॥अन्त समय रघुवरपुर जाई, जहां जन्म हरि भक्त कहाई।श्री हरिदास कहै अरु गावै, सो बैकुण्ठ धाम को जावै॥॥दोहा॥सात दिवस जो नेम कर, पाठ करे चित लाय।हरिदास हरि कृपा से, अवसि भक्ति को पाय॥राम चालीसा जो पढ़े, राम चरण चित लाय।जो इच्छा मन में करै, सकल सिद्ध हो जाय॥

श्री राम जी चालीसा By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब ॥चौपाई॥ श्री रघुवीर भक्त हितकारी, सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी। निशिदिन ध्यान धरै जो कोई, ता सम भक्त और नहिं होई॥ ध्यान धरे शिवजी मन माहीं, ब्रह्मा इन्द्र पार नहिं पाहीं। जय, जय, जय रघुनाथ कृपाला, सदा करो संतन प्रतिपाला॥ दूत तुम्हार वीर हनुमाना, जासु प्रभाव तिहूं पुर जाना। तव भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला, रावण मारि सुरन प्रतिपाला॥ तुम अनाथ के नाथ गुंसाई, दीनन के हो सदा सहाई। ब्रह्मादिक तव पार न पावैं, सदा ईश तुम्हरो यश गावैं॥ चारिउ वेद भरत हैं साखी, तुम भक्तन की लज्जा राखीं। गुण गावत शारद मन माहीं, सुरपति ताको पार न पाहीं॥ नाम तुम्हार लेत जो कोई, ता सम धन्य और नहिं होई। राम नाम है अपरम्पारा, चारिहु वेदन जाहि पुकारा॥ गणपति नाम तुम्हारो लीन्हो, तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हो। शेष रटत नित नाम तुम्हारा, महि को भार शीश पर धारा॥ फूल समान रहत सो भारा, पाव न कोऊ तुम्हारो पारा। भरत नाम तुम्हरो उर धारो, तासों कबहुं न रण में हारो॥ नाम शत्रुहन हृदय प्रकाशा, सुमिरत होत शत्रु कर नाशा। लखन तुम्हारे आज्ञाकारी, सदा करत सन्तन रखवारी...

श्री शिव चालीसा ।।दोहा।।जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥॥चौपाई॥जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥मैना मातु की हवे दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी॥दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥प्रगटी उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥जो यह पाठ करे मन लाई। ता पर होत है शम्भु सहाई॥ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥॥दोहा॥नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान।अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

          श्री शिव चालीसा                  ।।दोहा।। जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान। कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥ ॥चौपाई॥ जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥ भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥ अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥ वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥ मैना मातु की हवे दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥ कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥ नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥ कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥ देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥ किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥ तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥ आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥ त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥ किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी॥ दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥ वेद नाम महिमा तव गाई। ...

(श्री पार्वती माता की चालीसा) ॥दोहा॥जय गिरी तनये दक्षजे शम्भू प्रिये गुणखानि।गणपति जननी पार्वती अम्बे! शक्ति! भवानि॥॥चौपाई॥ब्रह्मा भेद न तुम्हरो पावे, पंच बदन नित तुमको ध्यावे।षड्मुख कहि न सकत यश तेरो, सहसबदन श्रम करत घनेरो॥तेऊ पार न पावत माता, स्थित रक्षा लय हित (हिय) सजाता।अधर प्रवाल सदृश अरुणारे, अति कमनीय नयन कजरारे॥ललित ललाट विलेपित केशर, कुंकुंम अक्षत शोभा मनहर।कनक बसन कंचुकि सजाए, कटी मेखला दिव्य लहराए॥कंठ मदार हार की शोभा, जाहि देखि सहजहि मन लोभा।बालारुण अनंत छबि धारी, आभूषण की शोभा प्यारी॥नाना रत्न जड़ित सिंहासन, तापर राजति हरि चतुरानन।इन्द्रादिक परिवार पूजित, जग मृग नाग यक्ष रव कूजित॥गिर कैलास निवासिनी जय जय, कोटिक प्रभा विकासिन जय जय।त्रिभुवन सकल कुटुंब तिहारी, अणु अणु महं तुम्हारी उजियारी॥हैं महेश प्राणेश तुम्हारे, त्रिभुवन के जो नित रखवारे।उनसो पति तुम प्राप्त कीन्ह जब, सुकृत पुरातन उदित भए तब॥बूढ़ा बैल सवारी जिनकी, महिमा का गावे कोउ तिनकी।सदा श्मशान बिहारी शंकर, आभूषण हैं भुजंग भयंकर॥कण्ठ हलाहल को छबि छायी, नीलकण्ठ की पदवी पायी।देव मगन के हित अस किन्हो, विष लै आपु तिनहि अमि दिन्हो॥ताकी, तुम पत्नी छवि धारिणी, दुरित विदारिणी मंगल कारिणी।देखि परम सौंदर्य तिहारो, त्रिभुवन चकित बनावन हारो॥भय भीता सो माता गंगा, लज्जा मय है सलिल तरंगा।सौत समान शम्भू पहआयी, विष्णु पदाब्ज छोड़ि सो धायी॥तेहि कों कमल बदन मुरझायो, लखी सत्वर शिव शीश चढ़ायो। नित्यानंद करी बरदायिनी, अभय भक्त कर नित अनपायिनी॥अखिल पाप त्रयताप निकन्दिनी, माहेश्वरी, हिमालय नन्दिनी। काशी पुरी सदा मन भायी, सिद्ध पीठ तेहि आपु बनायी॥भगवती प्रतिदिन भिक्षा दात्री, कृपा प्रमोद सनेह विधात्री।रिपुक्षय कारिणी जय जय अम्बे, वाचा सिद्ध करि अवलम्बे॥गौरी उमा शंकरी काली, अन्नपूर्णा जग प्रतिपाली।सब जन की ईश्वरी भगवती, पतिप्राणा परमेश्वरी सती॥तुमने कठिन तपस्या कीनी, नारद सों जब शिक्षा लीनी।अन्न न नीर न वायु अहारा, अस्थि मात्रतन भयउ तुम्हारा॥पत्र घास को खाद्य न भायउ, उमा नाम तब तुमने पायउ।तप बिलोकी ऋषि सात पधारे, लगे डिगावन डिगी न हारे॥तब तव जय जय जय उच्चारेउ, सप्तऋषि, निज गेह सिद्धारेउ।सुर विधि विष्णु पास तब आए, वर देने के वचन सुनाए॥मांगे उमा वर पति तुम तिनसों, चाहत जग त्रिभुवन निधि जिनसों।एवमस्तु कही ते दोऊ गए, सुफल मनोरथ तुमने लए॥करि विवाह शिव सों हे भामा, पुनः कहाई हर की बामा।जो पढ़िहै जन यह चालीसा, धन जन सुख देइहै तेहि ईसा॥बाल वनिता महिला आश्रम॥ दोहा ॥कूटि चंद्रिका सुभग शिर, जयति जयति सुख खानिपार्वती निज भक्त हित, रहहु सदा वरदानि।

     (श्री पार्वती माता की चालीसा)                                   ॥दोहा॥ जय गिरी तनये दक्षजे शम्भू प्रिये गुणखानि। गणपति जननी पार्वती अम्बे! शक्ति! भवानि॥ ॥चौपाई॥ ब्रह्मा भेद न तुम्हरो पावे, पंच बदन नित तुमको ध्यावे। षड्मुख कहि न सकत यश तेरो, सहसबदन श्रम करत घनेरो॥ तेऊ पार न पावत माता, स्थित रक्षा लय हित (हिय) सजाता। अधर प्रवाल सदृश अरुणारे, अति कमनीय नयन कजरारे॥ ललित ललाट विलेपित केशर, कुंकुंम अक्षत शोभा मनहर। कनक बसन कंचुकि सजाए, कटी मेखला दिव्य लहराए॥ कंठ मदार हार की शोभा, जाहि देखि सहजहि मन लोभा। बालारुण अनंत छबि धारी, आभूषण की शोभा प्यारी॥ नाना रत्न जड़ित सिंहासन, तापर राजति हरि चतुरानन। इन्द्रादिक परिवार पूजित, जग मृग नाग यक्ष रव कूजित॥ गिर कैलास निवासिनी जय जय, कोटिक प्रभा विकासिन जय जय। त्रिभुवन सकल कुटुंब तिहारी, अणु अणु महं तुम्हारी उजियारी॥ हैं महेश प्राणेश तुम्हारे, त्रिभुवन के जो नित रखवारे। उनसो पति तुम प्राप्त कीन्ह जब, सुकृत पुरातन उदित भए तब॥ बूढ़ा बैल सवारी जिनकी,...

श्री गायत्री चालीसा ॥दोहा॥ ह्रीं, श्रीं क्लीं मेधा, प्रभा, जीवन ज्योति प्रचण्ड। शान्ति कान्ति, जागृति, प्रगति, रचना शक्ति अखण्ड॥ जगत जननी, मंगल करनि, गायत्री सुखधाम। प्रणवों सावित्री, स्वधा स्वाहा पूरन काम॥ बाल वनिता महिला आश्रम ॥चौपाई॥ भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी, गायत्री नित कलिमल दहनी। अक्षर चौविस परम पुनीता, इनमें बसें शास्त्र, श्रुति, गीता॥ शाश्वत सतोगुणी सत रूपा, सत्य सनातन सुधा अनूपा। हंसारूढ़ सिताम्बर धारी, स्वर्ण कान्ति शुचि गगन-बिहारी॥ पुस्तक पुष्प कमण्डलु माला, शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला। ध्यान धरत पुलकित हित होई, सुख उपजत दुःख दुर्मति खोई॥ कामधेनु तुम सुर तरु छाया, निराकार की अदभुत माया। तुम्हरी शरण गहै जो कोई, तरै सकल संकट सों सोई॥ सरस्वती लक्ष्मी तुम काली, दिपै तुम्हारी ज्योति निराली। तुम्हरी महिमा पार न पावैं, जो शारद शत मुख गुन गावैं॥ चार वेद की मात पुनीता, तुम ब्रह्माणी गौरी सीता। महामन्त्र जितने जग माहीं, कोउ गायत्री सम नाहीं॥ सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै, आलस पाप अविद्या नासै। सृष्टि बीज जग जननि भवानी, कालरात्रि वरदा कल्याणी॥ ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते, तुम सों पावें सुरता तेते। तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे, जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे॥ महिमा अपरम्पार तुम्हारी, जय जय जय त्रिपदा भयहारी। पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना, तुम सम अधिक न जगमे आना॥ तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा, तुमहिं पाय कछु रहै न कलेशा। जानत तुमहिं तुमहिं व्है जाई, पारस परसि कुधातु सुहाई॥ तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई, माता तुम सब ठौर समाई। ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे, सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे॥ सकल सृष्टि की प्राण विधाता, पालक पोषक नाशक त्राता। मातेश्वरी दया व्रत धारी, तुम सन तरे पातकी भारी॥ जापर कृपा तुम्हारी होई, तापर कृपा करें सब कोई। मन्द बुद्धि ते बुद्धि बल पावें, रोगी रोग रहित हो जावें॥ दारिद्र मिटै कटै सब पीरा, नाशै दुःख हरै भव भीरा। गृह क्लेश चित चिन्ता भारी, नासै गायत्री भय हारी॥ सन्तति हीन सुसन्तति पावें, सुख संपति युत मोद मनावें। भूत पिशाच सबै भय खावें, यम के दूत निकट नहिं आवें॥ जो सधवा सुमिरें चित लाई, अछत सुहाग सदा सुखदाई। घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी, विधवा रहें सत्य व्रत धारी॥ जयति जयति जगदम्ब भवानी, तुम सम ओर दयालु न दानी। जो सतगुरु सो दीक्षा पावे, सो साधन को सफल बनावे॥ सुमिरन करे सुरूचि बड़भागी, लहै मनोरथ गृही विरागी। अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता, सब समर्थ गायत्री माता॥ ऋषि, मुनि, यती, तपस्वी, योगी, आरत, अर्थी, चिन्तित, भोगी। जो जो शरण तुम्हारी आवें, सो सो मन वांछित फल पावें॥ बल बुद्धि विद्या शील स्वभाउ, धन वैभव यश तेज उछाउ। सकल बढें उपजें सुख नाना, जो यह पाठ करै धरि ध्याना॥ ॥दोहा॥ यह चालीसा भक्ति युत, पाठ करै जो कोय। तापर कृपा प्रसन्नता, गायत्री की होय॥ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब

              (  श्री गायत्री चालीसा )                          ॥दोहा॥   ह्रीं, श्रीं क्लीं मेधा, प्रभा, जीवन ज्योति प्रचण्ड। शान्ति कान्ति, जागृति, प्रगति, रचना शक्ति अखण्ड॥ जगत जननी, मंगल करनि, गायत्री सुखधाम। प्रणवों सावित्री, स्वधा स्वाहा पूरन काम॥ बाल वनिता महिला आश्रम ॥चौपाई॥ भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी, गायत्री नित कलिमल दहनी। अक्षर चौविस परम पुनीता, इनमें बसें शास्त्र, श्रुति, गीता॥ शाश्वत सतोगुणी सत रूपा, सत्य सनातन सुधा अनूपा। हंसारूढ़ सिताम्बर धारी, स्वर्ण कान्ति शुचि गगन-बिहारी॥ पुस्तक पुष्प कमण्डलु माला, शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला। ध्यान धरत पुलकित हित होई, सुख उपजत दुःख दुर्मति खोई॥ कामधेनु तुम सुर तरु छाया, निराकार की अदभुत माया। तुम्हरी शरण गहै जो कोई, तरै सकल संकट सों सोई॥ सरस्वती लक्ष्मी तुम काली, दिपै तुम्हारी ज्योति निराली। तुम्हरी महिमा पार न पावैं, जो शारद शत मुख गुन गावैं॥ चार वेद की मात पुनीता, तुम ब्रह्माणी गौरी सीता। महामन्त्र जितने जग माहीं, क...